ब्रजेंद्र प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार/ समाजिक कार्यकर्ता
भारत के अनेक प्रदेश मानसून के शबाब के दिनों में एक जबरदस्त विरोधाभास के शिकार हैं। कहीं दो चार दिन की बारिश से जल प्लावन की स्थितियां हैं तो कहीं पर औसत से कम बारिश से सूखे के हालत पैदा हो गए हैं। राज्य सरकारें विशेषकर धान की फसल का जायजा लेकर सूखा ग्रस्त इलाकों की औपचारिक घोषणा करके किसानों के 'सावनी सूखे' पर कुछ मदद की सरकारी बूंदे छिड़कना चाहती हैं। सरकारी तन्त्र प्राय: यही करता है। क्या यह उपाय काफी हैं? इस सवाल का उत्तर बहस की एक बड़ी पृष्ठ भूमि तैयार करता है। मैं एक जल कार्यकर्ता होने के नाते आपको एक सहज समाधान की ओर ले चलता हूँ. आप देख रहें होंगे कि इस वक्त समाज का एक बड़ा हिस्सा काँवड लेकर निकल रहा है। रुद्राभिषेक के आयोजन हो रहे हैं। क्लबों और सामाजिक केंद्रों में सावन महोत्सव मनाया जा रहा है। ऐसे में इन आयोजनों का जल साक्षरता के लिए बेहतर प्रयोग किया जा सकता है, किया जाना भी चाहिए। हमें जल कथाएँ शुरू करनी होंगी। कथा में जल चक्र बताना होगा और नागरिकों को उनका दायित्व कि जल का सदुपयोग करें। बूंद बूंद सहेजें और धरती का पेट भरने का हर यत्न करें। यानी वर्षा जल संचयन। ग्राम समाज के तालों में कब्जा करना पाप है, नदी की जमीन कब्जा करना पाप है और जल का चक्र संतुलित बनाये रखना ही पुण्य है। सावन का यह महीना धार्मिक गतिविधियों का समय है, जब जल से जुड़कर तीर्थ होता है। राज और समाज के जिम्मेदार तन्त्र को यह मौका लपक लेना चाहिए। जल चक्र, उसके प्रबंधन की बातें अकादमिक चर्चाओं से बाहर निकल कर आम लोगों के बीच आना चाहिए। ऐसा करके हम तत्काल राहत भले महसूस न कर पाएं, स्थाई राहत का आधार तैयार कर सकेंगे।
हमें यह बताना होगा कि गांव- शहर तेजी से पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। प्रत्येक नागरिक की जल संकट पैदा करने और जल संकट से उबारने में भूमिका है। बस यही बात समझने, समझाने की है। जान समझकर भी जल का दुरूपयोग करने वालों को सामाजिक और आर्थिक दण्ड देने की आवश्यकता है। जो बेहतर करें, उनकी पीठ भी ठोकी जाए। भूजल से वाहन धोते हुए लोग सभी जगह दिखते हैं, वहीं एक एक बोतल पानी के लिए परेशान लोग और दूसरे जीव भी दिखते हैं। मौजूदा वक्त में भी कानून हैं; मगर जल के साथ हो रहे अपराध को रोकने में न समाज संवेदनशील हो रहा है; न सरकार का तन्त्र। होना तो यह चाहिए कि अब पानी पर पालीटिक्स होनी चाहिए। जो साफ पानी दे, पानी का सदुपयोग करे, सबको पानी समान रूप से मुहैय्या कराने का वायदा करे; ऐसा व्यक्ति नगर निगमों में जाए और विधान सभाओं से लोकसभा तक जाए। पानी एक कुदरत की नेमत है, इस पर सबका समान हक है। मनुष्य का भी, दूसरे जीव जंतुओ का भी। मगर अभी पानी का बर्बर प्रयोग हो रहा है जो घातक है, इसे रोकना ही होगा। हमें स्कूलों में वॉटर लिट्रेसी शुरू करनी होगी। धार्मिक संघों को जल कथाएँ शुरू करनी चाहिए और सरकार को अपने ही कहे पर अमल। इससे बेहतर रास्ता निकल आएगा।
मैं आपको एक मुहिम की याद दिलाना चाहूंगा।
छोटी नदियाँ बचाओ अभियान से जुड़े लोगों ने कुंभ मेला से जल कथाएं शुरू की थी। इसमें जल चक्र और उसके धार्मिक वैज्ञानिक पहलू बताये गए। मन में सामान्य पानी के प्रति भी गंगाजल जैसी श्रद्धा लाने के लिए। अभियान से जुड़े लोगों का मानना है कि पानी का सम्मान जरूरी है। सरकार से आग्रह किया गया है कि स्कूली पाठ्यक्रम में नदियों की पढ़ाई शुरू की जाए। इसके लिए पुस्तक लेखन भी शुरू कराया गया है। देश भर में छोटी नदियों के अभियान से जुड़े लोग कह रहे हैं कि अब पानी के नाम पर राजनीति न हो। पानी की राजनीति की जाए। राजनीतिक दलों को पानी पर समग्र और अलग घोषणा पत्र लाना चाहिए।
यह मुहिम मूल की चिंता करती है। कैसे जल स्रोत बचाए जाएं। तालाबों को धरती का फेफड़ा बताते हुए इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि नए सिरे से तालाबों की गिनती शुरू कराई जाए। छोटी नदियों की गणना हो। नदी की जमीन का ऐलान किया जाए। ताल-तलैया का पानी नदी में जाने के रास्ते खोले जाएं। बारिश का पानी रोके जाने के लिए नदी के किनारे जहां जगह हो, बड़े ताल बना दिये जायें। पौधे लगाकर नदी के पूरे कैचमेंट एरिया को संरक्षित किया जाए। यह चिंता आगे बढ़ते हुए शहरों तक आती है। नदी के अंदर शहर और ग्रामीण क्षेत्र के नालों का किसी भी तरह का पानी जाने से रोकने की सख्त मांग करते हुए यह अभियान जल कथाओं में प्रदूषण को पाप ठहराता है। जल कथा में बताया जा रहा है कि नदी के अंदर जलीय जीव जंतु रह सकें, ऐसा पानी रखना तय किया जाए। नदी के अंदर खनन नियंत्रित किया जाए और ईको बैलेंस बचाते हुए सिल्ट निकली जाए। पेड़ पौधों से ही नदी के किनारे परिंदे रह पाएंगे। जैव विविधता बचेगी, नदी किनारे पौधरोपण हो। फलदार पेड़ लगें।नदी की जमीन का चिन्हांकन आबादी के आसपास जरूर किया जाए। जिला मुख्यालय, ब्लाक मुख्यालय, पंचायतों में जिले की सभी नदियों का उल्लेख किया जाए। राज्य अपनी राज्य नदी घोषित करे, जिला पंचायत अपनी जिले की नदी यानी जनपद नदी घोषित करे। नदी पर अतिक्रमण करने वालों पर आपराधिक मुकदमे चलाये जाएं। उसके किनारे जो वन लगें, वो नदी की सम्पदा हों और जल संसाधन विभाग और पंचायतें उसकी साझीदार हों न कि वन विभाग। नदी के वन और अन्य वनों में फर्क किया जाए।जिला पंचायतों में नदी- ताल, झील के संरक्षण का अलग प्रकोष्ठ बने। इसके साथ ही घरों में किए जाने वाले कामकाज भी आम लोगों को समझाए जा रहे हैं। एक नजीर देखें। कथा में कहा जा रहा है कि पानी छोटे ग्लास में पिए -पिलाएं। पानी उतना ही लें जितना पी सकें। आरओ का बचा पानी अन्य इस्तेमाल में लाएं। शेविंग और ब्रश करने में नल सीधे न खोलें। मग व बकेट में पानी का प्रयोग किया जाए घरों, बाजारों में पानी रिसता दिखे तो ठीक करें, कराएं। वर्षा जल सहेजना शुरू करें। पार्कों में पानी सहेजें। घर में, स्कूल में, खाली जमीन पर छोटे, बड़े पौधे लगाएं। वाहन धुलने के लिए पेयजल का प्रयोग न करें। नहाते वक्त भी मग और बकेट का इस्तेमाल करें। ऐसी छोटी-छोटी कोशिशें एक-एक बूंद के समान हैं जो समुद्र भरने के लिए काफी हैं। क्या हम जल चक्र समझने के लिए तैयार हैं? -ब्रजेंद्र प्रताप सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें